भीगी सी तन्हाई
भीगी सी तन्हाई (कविता)
बड़ी सहजता से मुझसे पूछा- मेरे शुभ चिंतक ने ,आप सपरिवार कैसे हैं?
मैंने भी सहजता से कह दिया,सब अलग-अलग हैं,सब अपनी दुनिया में व्यस्त हैं!
अपने हिस्से की जिम्मेदारी
को निभा रही हूं
आंखों के आंसुओं को
दुपट्टे की ओट में छिपा रही हूं!!
बस दुनियादारी के लिये
टूटे रिश्तों को संजो रही हूं
ना चाहकर भी लबों पे
झूठी मुस्कान सजा रही हूं
किसी के आने की
आहट का इन्तजार कर रही हूं
मत पूछें कि मैं कैसी हूं
मैं आज भी वैसी हूं
जैसे सदियों से पूर्णिमा हुआ करती है आसमान में
अपने साथ अधूरेपन का एहसास लिये
इस गुमान में कि मैं पूर्ण हूं ,
कब तक जिऊंगी,यह अधूरी जिन्दगी
दिखावे की मुस्कान संग
पर क्या कहूं
लाख कोशिशों के बावजूद भी
"पूर्णिमा" अधूरी ही रही
भीगी सी सर्द तन्हाई में
भीगी सी आंखों में यादों की नमी,
आज भी दिल को भिगो रही हैं ,तड़पा रही है
डॉ पूर्णिमा राय, पंजाब
दर्द भरी कविता
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