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Showing posts from April, 2022

धरती माँ : रचनाकारों की नज़र में (सांझा संग्रह -1)by Dr.Purnima Rai

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धरती माँ : रचनाकारों की नज़र में (डॉ पूर्णिमा राय) वसुधा की गोद में मानव ने अपनी पहली साँस ली तो उसे जिस अपनत्व का अहसास पहली बार हुआ, वह है माँ! माँ का कर्ज कोई भी नही उतार सका ।रचनाकार अपने सृजन में सदा माँ को किसी न किसी रुप में अनुभव करते रहें हैं।भूमि की गहराइयों में जो सहनशीलता ,ममत्व और सेवा-भाव समाहित है ,उसे सहृदय रचनाकार कवि और सहृदय पाठक ही महसूस कर सकता है ।इसी लक्ष्य के तहत यहाँ धरती जिसे भूमि ,पृथ्वी,भू,वसुधा,वसुंधरा आदि विभिन्न नामों से पुकारा गया है .,से संबंधित विभिन्न काव्य रचनाओं को संकलित किया गया है ..... 1* धरती माँ के प्रति फर्ज कोई विधवा बना रहा है छीनकर इसका श्रृंगार,  कोई बाँझ बना रहा है देकर दु:ख आपार,  हम वादा करते हैं लायेंगे धरती पर स्वर्ग उतार,  गंदगी फैलाकर नरक का खुद खोलते हैं द्वार,  बुद्धिमान होकर भी अनोखी दुनिया मिटा रहे हैं... अपनी माँ से बिछड़कर शायद जिना है मुमकिन,  क्या पल भर भी हम जी सकते हैं धरती माँ के बिन,  फिर भी सहनशिल माँ दर्द सहती है रात-दिन,  मानव होकर भी नहीं चुकाते धरती माँ का ऋण,  फि...

मानव धर्म

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पोस्ट संख्या-55  मानव धर्म अमोल है ,बाँटे जग में प्यार मानव धर्म अमोल है ,बाँटे जग में प्यार। सर्वधर्म सद्भाव का, करता रहे प्रचार।। अकाल पुरख परमेश्वर,रामकृष्ण अवतार। सबका ही फरमान है,मत करना तकरार।। हिन्दू,मुस्लिम, सिक्ख में, खड़ी न हो दीवार। मानवता की नींव पर ,बसा रहे संसार।। मेरा मुझमें कुछ नहीं ,सब तेरा दातार। तन-मन-धन को सौंप कर,मिलेगा निरंकार।। सेवक-सेव्य भाव से,भवसागर हो पार। ईश रूप हर भक्त का , करें सदा सत्कार।। मिलवर्तन औ' स्नेह से,फैले मानव धर्म। स्वार्थ लोभ अभिमान से ,समझ न आये मर्म।।

मिट्टी के पुतले (दोहे)

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मिट्टी के पुतले (दोहे) मिट्टी के पुतले सभी ,करते हैं अभिमान रोजी रोटी के लिये ,जा पहुंचे श्मशान  मुर्दे को भी न छोड़ते,गहने लिये उतार नींद न आती चैन से,धन‌ के ढेर अपार झूठ भरा संसार यह,मतलब का है प्यार  सीरत अच्छी देखकर ,तभी बनाना यार अथक परिश्रम विफल हुआ,खोया मुख का नूर  तन उजले मन खोट जब,मंजिल दिखती दूर नीयत जिसकी साफ हो,बांटे जग खैरात चांद झांकता 'पूर्णिमा', तारों की सौगात डॉ पूर्णिमा राय, पंजाब

कंचन काया मोहिनी

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 कंचन काया मोहिनी,सिर्फ राख का ढेर (दोहे) कंचन काया मोहिनी,सिर्फ राख का ढेर। सीरत शबरी देखकर,राम ने खाय बेर।।1) करते रक्षा राख की, निष्ठुर कपटी लोग। अन्त समय पछता रहे,पाप कर्म फल भोग।।2) मनचाही फसलें मिलें,यत्न कृषक के लाख। बेमौसम बरसात से,होते सपने राख।।3) कंचन तन जग सोहता,राख करे है काल। मन से मन का कर मिलन,बाजे सुर औ'ताल।।4) चिंता की चक्की चली,इज्जत का व्यापार। बाप चिता के सामने,राख हुआ घर-बार।।5) झण्डा ऊँचा देश का,सैनिक रखते धीर। राख बड़ी अनमोल है,साख बचाते वीर।।6) भारत की भू के लिये,तन-मन है कुर्बान। तिलक लगाकर राख का,वीर करेंअभिमान।।7) हाथ 'पूर्णिमा' कुछ नहीं, जन्म-मरण का खेल। राख हुये जग रो दिया, हुये हृदय से मेल।।8) डॉ.पूर्णिमा राय