स्वार्थ का कीड़ा खेल खेलता है
स्वार्थ का कीड़ा खेल खेलता है
अंध श्रद्धा को भक्ति एवं धर्म का नाम देना उचित नहीं।धर्म यह भी नहीं कि भेड़चाल की तरह यां पारिवारिक संस्कारों में मिली धार्मिक विरासत के आगे बिना सोचे समझे ,जाने बगैर मस्तक झुकाओ और घुटने टेक दो।ठप्पा लगा..कहाँ है ठप्पा...आमिर खान की फिल्म "ओ माय गॉड" में बेबाकी से धार्मिकता पर किया आक्षेप आज के संदर्भ में कितना उचित था यां अनुचित ...सोचने का प्रश्नहै।पर तब भी विवाद हुआ ..लोगों की भावनाओं को ठेस पहुँची ...कहकर आक्षेप लगे।सदैव देर बाद ही बात समझ आती है शायद भोले भाले लोगों को,समाज के नेताओं को ,सरकारों को,,धर्म के ठेकेदारों को ..तभी तो 15 साल बाद किसी निर्णय पर पहुँचे।यहाँ मुद्दा किसी धर्म गुरु का,नेता का,प्रशासन का,व्यवस्था का यां प्रबुद्ध वर्ग यां सामान्य जन का ...किसी का भी हो ...शीघ्र स्वीकारने में हिचकिचाहट होती है ..तभी तो आगजनी,हिंसा,पथराव,.मृत्यु का तांडव न जाने क्या क्या ......देखती है आँखें...और दुखी होती है साफ आत्मायें!!
स्वार्थ का कीड़ा खेल खेलता है सब....अगर हम कहें कि सब एक जैसे हैं तो यह धारणा गल्त होगी।साधारण तौर पर किसी एक के कुकर्म यां बुराई करने से लांछन सब पर लग जाता है।जैसे हाथों की उंगलियाँ समान नहीं है ,वैसे सब को एक तराजू में तोलना उचित नहीं।...सामान्य वर्ग की कुछ आवश्यक जरुरतें पूरी होती हैं तो विशेष वर्ग की आत्मतुष्टि .....जब वह किसी संप्रदाय यां व्यक्ति विशेष पर आस्था रखकर जुड़ते हैं। यहाँ कहना चाहूँगी----
धर्म-कर्म करने वालों ने
जग का भार उठाया है।
पाप-पुण्य के तोल-मोल में
दुनिया को भरमाया है।।
सत्य अहिंसा प्रेम डगर ही
जीवन का आधार बने;
मानव धर्म अमोल विश्व में
खुद से मेल कराया है।
असली धर्म है निस्वार्थ रुप से किसी की मदद करना।जैसे श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी ने अपने पिता श्री गुरु तेगबहादुर जी को 9वर्ष की आयु में कश्मीरी पंडितों की रक्षार्थ बलिदान हेतु प्रेरित किया एवं अपना सर्वस्व धर्म हित न्योछावर किया।
खुली आँख से देखेंगे तो
पूरा होगा हर सपना।
मिलती मंजिल जग में उनको
जीत सकें जो डर अपना।
झूठे पंडित ज्ञानी बनकर
जनता को जो लूट रहे;
मुँह में राम बगल में छुरियाँ
ऐसे नाम नहीं जपना।...
अभी बीते दिन हुये जस्टिस जगदीप सिंह द्वारा किये फैसले ने सिद्ध कर दिया कि डर के आगे जीत है।आज की नारी की जीत हुयी है ..संपूर्ण सत्य की जात हुयी है।--------
जीतकर डर को
हो गई निर्भय
आज की नारी
पंगु कर गई
धर्म के ठेकेदारों को!!
जब तक हम अज्ञानता की चादर ओढ़कर सोये रहेंगे तब तक हमारा शोषण होगा ..हरेक रुप में ..हरेक उस व्यक्ति से जो स्वार्थी है ..चाहे उस पर ठप्पा धर्म बाबा का हो..यां नेता का..यां वकील का..यां डाक्टर का..यां अध्यापक का...पुलिस का..न्याय का......दहेज दानव का....तंत्र विद्या का...वैज्ञानिक तर्कों का......हम अपमानित होते रहेंगे ..आवश्यकता है खुद को बदलने की..भेड़चाल अस्वीकारने की...कुर्सी के लालच को त्यागने की......
ज्ञान महज किताबी नहीं बल्कि व्यावहारिक हो...जो समाज में आँखें खोलकर ,विवेक सम्मत विचरण करना सिखाये....तभी हम सही गल्त मार्ग को अपनी सामर्थ्य से चुन सकते हैं....
अंत में कहना चाहूँगी----
गिद्ध-चील सब हुए इकट्ठे,
अपना हुक्म चलाते हैं।
पशु समझकर मानव को वह ,
नोच-नोच कर खाते हैं।।
आत्मा उनकी मरी हुई औ'
सज्जन कहते जग वाले;
दुष्कर्म अनगिनत हैं करते,
खुद को पाक बताते है
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