वह औरत

 वह औरत ( लघुकथा)




उफ!कभी सात बजे आ धमकता तो कभी 10बजे! रात के साढे आठ बज गये हैं !और यह दूध वाला क्या करूँ!बिना दूध के गुजारा भी तो नहीं होता !मैडम जी,दूध ले जाओ !आवाज़ सुनकर लतिका थोड़ी आग बबूला हुई बर्तन लेकर दूध लेने चली गई।सड़क के दूसरी ओर से एक औरत हाथ में बर्तन लिये और साथ में शायद तीन बच्चियाँ जो नंगे पाँव तथा जिनके जिस्म पर ना मात्र के ही वस्त्र थे,उम्र यही 6साल ,4साल और 2 साल के पास होगी।संग लिये ऊँची-ऊँची बोलती हुई,तुमने मुझे दूध क्यों न दिया ।मेरे घर के बाहर तू रुका क्यों नहीं !बता ,जल्दी
बोल!उसे इस तरह बात करते हुये लतिका दूध डलवाते हुये एक नज़र उस औरत पर  डालती,फिर एक नज़र दूधवाले की ओर  !आप लोग हमें तीन महीने हो गया,दूध का पैसा न दिया !--दूधवाला बोला!
अरे,वह तो मेरी अम्मा का हिसाब-किताब है !मैं तो यहाँ परसों से आई हूँ ।मैंने तो जब भी आधा किलो दूध लिया,पैसे दिये थे न!वह मिन्नत की स्थिति में कह रही थी..चल डाल दे दूध!पर दूध वाला नहीं मान रहा था!इसी बीच लतिका चुपचाप घर के भीतर आ गई।उनके आपसी झगड़े को वह महसूस कर रही थी।किचन में आकर चार पैकेट बिस्किट के लिये ।बाहर जाकर उसने बिस्किट उन बच्चियों को पकड़ाने के लिये ज्यों ही हाथ बढ़ाया,उन्होनें शीघ्रता से एक झपटे से वह बिस्किट ऐसे पकड़े जैसे कई दिनों से भूखी हों। ओह ,मैनें समझा चार बच्चियाँ हैं ,एक पैकेट जब लतिका दूधवाले को देने लगी कि चलो यह तुम अपने छोटे बच्चे को दे देना।तभी वह औरत बोली, मेरी चौथी बच्ची को पैदा हुये पन्द्रह  दिन  हुये हैं ,वह हॉस्पिटल में है।गैस पर उबलने के लिये रखे दूध का ध्यान आते ही लतिका भीतर तो आ गई मगर उस औरत और बच्चियों के वर्तमान और भविष्य का सोचते हुये कब दूध उबल गया,उसे पता ही न चला !!!!!!!!



डॉ.पूर्णिमा राय, पंजाब 

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