काला बूट
काला बूट( लघुकथा)
बच्चों तुम रोज क्यों लेट हो जाते हो? काफी पूछताछ के बाद पता चला कि ये बच्चे अनाथ हैं। ऐसा नहीं कि इनके माँ-बाप नहीं है बल्कि इनको दो वक्त की रोटी देने में इनके माता-पिता असमर्थ हैं।अब माँ-बाप भी क्या करें,चार-पाँच बच्चे पैदा तो कर लिये बिन सोचे समझे!!अब वह नन्हीं जानें अपना पेट कैसे भरें!पानी पीकर ही तो भूख शान्त न होती!खैर ये तो रोज की ही समस्या है ।कब तक सोचते रहेंगे!कितनों को खुद के पैसे खर्च करके खाना खिलायेंगे।अपने आप से बात करते हुये अध्यापिका अपनी कक्षा की ओर चली गई।यह सोच आज 100 में से 95 लोगों की होती है।फिर एक ठेके पर रखा अध्यापक कैसे इन बच्चों के साथ सामंजस्य स्थापित करे।उन्हें खिलाये कि पढ़ाये!!चौथी कक्षा का हरप्रीत खुश था।आज एक नया गबरु जवान अध्यापक स्कूल में आया था।पेंट-शर्ट, टाई पहने हुये काले रंग के नये बूट उस जवान पर बहुत जंच रहे थे।अपने अनुमान से ही हरप्रीत को पता चल गया कि यह तो हम बच्चों को ही पढ़ाने हेतु नियुक्त हुये हैं।कदमों की रफ्तार बढ़ने पर कच्चे मैदान की धूल से काले बूट सफेद हो गये थे।रुकिये सर!आवाज सुनते ही अध्यापक ठिठक गया।एक नन्हां मासूम बच्चा पास आया।बड़ी मिट्टी है हमारे स्कूल में! गर्द सने नन्हें हाथों को अपनी कमीज से साफ करते हुये हरप्रीत ने अपने स्कूल बैग से एक बूट साफ करने वाला ब्रश निकाला और जल्दी से अध्यापक के बूट पर पड़ी धूल तब तक साफ करने लगा, जब तक उसके हाथों में जान थी। यह सब इतनी शीघ्रता में घटित हुआ कि अध्यापक अवाक रह गया।नन्हें हरप्रीत को जमीन से उठाकर अध्यापक ने अपने सीने से लगा लिया और आसमान की ओर ताकते हुये बोला--या खुदा!यह तेरा कैसा इंसाफ है। हरप्रीत ने धीरे से अध्यापक को हिलाते हुये कहा---मुझे 2 रुपये दे दीजिये!!
डॉ पूर्णिमा राय, पंजाब
Comments
Post a Comment