खालसाई ओज का प्रतीक होला महल्ला:एक दृष्टिपात


 खालसाई ओज का प्रतीक होला महल्ला:एक दृष्टिपात

 


आज की भागदौड़ भरी जिंदगी में जहाँ एक ओर त्योहारों को अनदेखा और नजर अंदाज किया जा रहा है ।वहीं दूसरी ओर लोगों में आपसी सदभाव और मिलनसारिता के भाव धूमिल होने लग गये है।जब भी होली की बात आती है तो एक अजीब सी सिहरन मन, देह ,आत्मा को कंपित कर जाती है ।एक अनोखा सा एहसास मन को उद्वेलित करने लगता है।अकेलेपन की त्रासदी का शिकार जनमानस आनंद के पलों की अनुभूति हेतु व्याकुल होता है।उसके लिए एकमात्र त्योहार ही आनंद के स्रोत हैं ,अब ऐसा नहीं रहा। सामयिक जीवन में लोगों के पास इंटरनेट की पर्याप्त सुविधाएं उपलब्ध हैं,लोग आज घरों से तो क्या ..अपने कमरे से बाहर निकलकर अन्य स्थान पर जाने के लिये भी तैयार नहीं,तो फिर हम कैसे होली जैसे पावन ,मादकता पूर्ण ,ऋतुराज के संदेशवाहक फाल्गुन का आनंद उठा सकते हैं 


फगुआ,धुलेंडी,फाल्गुनी आदि नामों से सुसज्जित 

होली फाल्गुन मास की पूर्णिमा को बसंत ऋतु में मनाया जाने वाला एवं भारतीय संस्कृति का एक मुख्य एवं सुप्रसिद्ध भारतीय त्योहार है।बसंत का संदेशवाहक होली पर्व संगीत और रंग का परिचायक तो है ही,साथ ही प्राकृतिक छटा भी पूर्ण उत्कर्ष पर दिखाई देती है।होली का सामाजिक धार्मिक एवं आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक महत्त्व भी है। 

होली हास-परिहास और उल्लास के साथ-साथ

सामाजिक समरसता,समानता,एकत्व एवं मित्रता का सन्देश देने वाला पर्व है।


होली' संस्कृत शब्द 'होल्क से संबंधित माना जा रहा है जिसका अर्थ है 'अपरिपक्व मकई'। चैत्र मास में नयी फसलें पकने को तैयार होती हैं। भारतीय मान्यता के अनुसार नए अन्न का उपयोग करने से पहले अग्नि भेंट किया जाता है। नए अनाज की बालियों को होली की अग्नि में भूनकर भगवान के प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है। इन भुनी बालिओं को होला कहा जाता है।आधा भुना हुआ चना और गेहूं होली के दिन खाया जाता है। पंजाब क्षेत्र में गेहूं वैसाख के महीने में होली के आने के बाद के दौरान काटा जाता है। 


पंजाब क्षेत्र में होली के मुल्तान शहर में प्रहलाद-पुरी मंदिर में जन्म लिया। होली शब्द से होलिका और प्रहलाद का प्रसंग भी जुड़ा हुआ है ।प्रहलाद को मारने के लक्ष्य से उसकी बुआ होलिका का स्वयं जल जाना भक्त प्रहलाद की भक्ति भावना का जीवंत उदाहरण है। अबीर, गुलाल और रंगों की महक बिखेरती होली कहीं लाठी से ,कहीं फूलों से, तो कहीं अपनी वीरता एवं युद्ध कला का अभ्यास करते हुये सिंह वीरों के खालसाई जज्बे से भरे प्रदर्शन में दिखाई देती है।


होली के शुभावसर पर पश्चिमी पंजाब और पूर्वी पंजाब में मक्खन और दूध एक मटकी में डाल कर एक उच्च स्थान पर लटका दी जाती है जिसे तोड़ने की परंपरा आज भी जारी है । एक पिरामिड के रूप में

छ: लोगों को एक दूसरे के कंधों पर अपने हाथों से खड़े होना होता है।जो लोग मटकी तोड़ने के लिये बने पिरामिड में भाग नहीं लेते वह बाहर रहकर पानी और रंगों को जोर से उनपर फैंकते हैं।यह मान्यता है कि ऐसा करना भगवान श्रीकृष्ण के माखन चोरी प्रसंग की याद को तरोताजा करता है जब वह भी अपने गोप -ग्वालों के साथ ऊँचे पर टंगी मटकी से माखन चुराने के लिये लालायित रहते थे।


तेज पुंज ,दशम नानक श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने 

जनमानस में शक्ति भरने के लिए होला महल्ला की परंपरा आरंभ की थी।उन्होंने युद्ध-कौशल, युद्ध-अभ्यास में पारंगत करने के लक्ष्य से जनसमूह को सैन्य-शक्ति में परिवर्तित किया था। होला-महल्ला में “होला” शब्द खालसाई बोली से लिया गया है और “महल्ला” अरबी भाषा का शब्द है। जिसका अर्थ है आक्रमण ,अर्थात युद्ध-कौशल का अभ्यास।

होला मोहल्ला पंजाब का प्रसिद्ध उत्सव है। सिक्खों के पवित्र धर्मस्थान श्री आनन्दपुर साहिब में होली

 के अगले दिन से लगने वाले मेले को होला मोहल्ला कहते है।यहाँ होली पौरुष के प्रतीक पर्व के रूप में मनाई जाती है।तीन दिन तक चलने वाले इस मेले में सिक्ख शौर्य, कला प्रदर्शन एवं वीरता के करतब दिखाए जाते हैं।


"वेख के आनंद आ गया ,

       जी सोहनां लगिया आनंदपुर मेला।

गुरां दे दवारे आ गया ,

     जी होके कम्म तों पंजाब सारा वेहला।।"


खालसा का निर्माण स्थल आनंदपुर साहिब में हर वर्ष नित नवल उत्साह के साथ संगत ट्रक, ट्राली,बस रेलगाड़ी,पैदल,मोटर साईकल आदि हरेक प्रकार के साधनों से केसरी और नीले दस्तार और चोला सजाकर होला मुहल्ला की पारंपरिक गुरु मर्यादा को बरकरार रखने एवं होली उत्सव काआनंद पाने के लिये पहुँच जाते हैं।आनंदपुर की नवेली दुल्हन की तरह सजावट की जाती है ।सर्वप्रथम किले आनंदगढ़ पर फूलों की वर्षा होती है।पाँच प्यारे नगाड़े बजाते हैं।"जो बोले सो निहाल" के नारों से धरती आकाश गुंजायमान होता है।श्री गुरु ग्रंथ साहिब की हजूरी में तख्त श्री केसगढ़ साहिब से आरंभ होकर विशाल नगर कीर्तन पारंपरिक ढंग से हरेक वर्ष की भाँति दुर्ग आनंदगढ़ से गुजरता हुआ हिमाचल की सीमा के निकट चरण गंगा स्टेडियम में संपन्न होता है ।------


बाजां वाला सत्गुरु, सानूँ है उडीकदा

छेती करो संगते जी ,समाँ जावै बीततदा

चल गुरु घर करने दीदारे,गड्डी च जगा मलियै

दिन होले ते मोहल्ले वाला आया,आनंदपुर चलियै।।


 इस शुभावसर पर शस्त्रों से सज्जित गुरु के प्यारे सिंह साहिबान गतका खेलते,नेज़े बाजी करते,घुड़सवारी दौड़ प्रतियोगिता करते,मार्शल आर्ट के खतरनाक प्रदर्शन करके अपने उत्साह ,वीरता एवं पराक्रम के साथ-साथ गुरु मर्यादा का जीवंत उदाहरण प्रस्तुत करते हैं।जिन्हें देखकर स्वत:ही तन मन से हरेक प्राणी गुरु रंग में सराबोर हो जाता है।यहाँ प्रतिवर्ष सैंकड़ों निहंग सिंह आते हैं जिनमें एक विशेष आकर्षण एवं

 प्रेरणा स्रोत श्री अवतार सिंह महाकाल नामक निहंग सिंह जी हैं ।इन्होंने 2012 में गुरु कृपा से हेमकुंट साहिब की पैदल यात्रा की है।यह हर वर्ष 645 मीटर का दुमाला (जिसका वज़न 95 किलो/ 75 किलो) बाबा दीप सिंह जी के आशीष से पहनकर आते हैं।इनका लक्ष्य है कि युवक माँ-बाप की सेवा करें,गुरु मर्यादा में रहें,केश कत्ल न करें,गिदड़ की मानिंद जीवन न जियें बल्कि गुरु के सिंह बनें।मनमत से दूर रहकर गुरमत में रहें।

पंजाब में होली का विशेष आकर्षण और आनंद सही मायनों में आनंदपुर के होला मोहल्ले में शामिल होकर ही आता है।


अंत में होली पर लिखी अपनी रचनाएं गीत //घनाक्षरी //माहिया छंद में आपकी नज़र करती हूँ....


माहिया-----

करे पूर्णिमा वंदन

हरि रँग चढ़ जाये

पायें फिर नव जीवन।।

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होली गीत----- मनाएं अलि होली....


बोल के मधुर मीठी बोली, 

       बना के भीनी भिन्न रंगोली

चला के तिरछे नयन गोली,

   भिगो के उज्ज्वल दामन चोली

मनाएं अलि सुंदर सप्रेम होली.....


बिखेर के अबीर गुलाल रंग,

        खिला के नयी उमंग तरंग,

महका के चंचल गौर अंग,

       मचा के स्वच्छंद प्रिय हुड़दंग,

मनाएं अलि उन्मुक्त शांत होली...


कर के मात-पिता पूजन,

         जोड़ के कर-कमल वंदन,

लगा के माथे तिलक चंदन,

         बदल के मन सोच चिंतन,

मनाएं अलि निष्कलंक होली.....

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सोनू की होली ( मनहरण घनाक्षरी)


सोनू कहे होली आई, होली खेलें बच्चे सारे;

फटे वस्त्र तन झांकें, भूख से बेहाल है।।


पानी से गुब्बारे भरें, पानी पीने को न मिले;

फागुन में आँखें भीगीं,होली भी कमाल है।।


हरे पौधे पीली गेहूँ, धरा का श्रंगार बनें;

देख-देख खुश होता ,धरती का लाल है।।


कच्चे रंग दुनिया के, भाये नहीं मन सोनू ;

माटी सना मुखड़ा ही ,लगे ज्यों गुलाल है।।



...डॉ.पूर्णिमा राय

शिक्षिका एवं लेखिका

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