अकेली (लघुकथा) बाल मनोविज्ञान पर आधारित
अकेली (लघुकथा)
बाल मनोविज्ञान पर आधारित
रात्रि का पहर!नींद आने ही लगी थी कि जोर से बिजली कड़कने लगी।तेज हवायें चलने लगी।खिड़कियों के हिलने की आवाज़ और कमरे में लगे पर्दे की हिलजुल से नींद पलकों के कोरों से कोसों दूर हो गई।ऊपर से लाईट भी गुल....!पास में लेटी बिटिया की भोली सी सूरत और खुली आँखें देखकर पूछा ...क्या हुआ ?सो जाओ!आप क्यों नहीं सो रहे ।प्रश्न पर प्रतिप्रश्न हुआ।बस नींद न आ रही ।कहकर बिंदिया सोने का बहाना करने लगी ताकि बिटिया सो जाये।कुछ देर बाद किसी के सुबकने की आवाज़ हुई...यह क्या !प्यार जताते हुये ,बिंदिया ने बिटिया को गले लगाया,माथा चूमा,क्या हुआ ?? कुछ नहीं माँ!बस यूँही !बता मेरी बच्ची ,यूँ न रोते!!माँ के अपनत्व के अहसास और रात्रि के पहर में दिल पिघलने लगा और जो डर ,घुटन नन्हीं जान ने समेटा हुआ था,वह परत दर परत खुलने लगा।माँ,मुझे पहले कुछ समझ नहीं आता था,अब मैं समझती हूँ धीरे धीरे सारी बातें!!एक अनमने से डर से बिंदिया प्यार से पूछती जाती थी और स्नेहा कहती जा रही थी कि मेरी बचपन की सहेली कला है ,जो नर्सरी से मेरे साथ बैंच पर बैठती रही ,हमेशा मेरे साथ रहती थी ।मुझे कभी और सहेली बनाने की आवश्यकता न पड़ी।और वैसे भी सब बच्चों के कक्षा मेंअपने-अपने साथी हैं।..जैसे-जैसे हम बड़े हो रहे हैं,और जबसे स्कूल में होशियार और कमजोर बच्चों का सैक्शन अलग-अलग हुआ।
तबसे वह मुझसे दूर हो गई।अब मेरी पास वाली सीट खाली है ,सर कहते हैं जब कोई और नया बच्चा आयेगा तब यह सीट भर जायेगी।क्यों माँ क्यों??मैं ही अकेली हो जाती हूँ ,बाकी सब के दोस्त जुदा क्यों नहीं होते?कहते-कहते स्नेहा की आँखों से आँसुओं की अविरल धारा बहने लगी।माँ ,छठी कक्षा तक हम साथ रहे ,मैं तब भी होशियार थी और कला पढ़ाई में कमजोर।आज भी मैं पढ़ाई में होशियार हूँ पर भीतर से खाली हूँ माँ,खाली।माँ,मुझे अच्छे नंबर नहीं चाहिये,मुझे कक्षा में एक अच्छा साथ चाहिये।स्नेहा, लाईट आ गई लगती !!ऐ.सी चला लो!!
डॉ.पूर्णिमा राय,
शिक्षिका एवं लेखिका
आलोचना पुरस्कार विजेता भाषा विभाग पटियाला पंजाब
बाल मनोविज्ञान को छूती बढ़िया कहानी
ReplyDeleteशुक्रिया
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