नारी और वक्त by Dr.Purnima Rai


नारी और वक्त 



नारी तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रजत नगपग तल में

पीयूष स्रोत सी बहा करो ,जीवन के समतल आँगन में

 (जयशंकर प्रसाद,कामायनी)


आज औरत अबला नही सबला है,वह पुरुष के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर पारिवारिक सामाजिक,शैक्षणिक एवं राष्ट्रीय,धार्मिक,साहित्यिक और साँस्कृतिक सभी प्रकार के कर्तव्यों को बाखूबी निभाने लगी है।वह हरेक कार्य जो पुरुष कर सकता है ,वह भी करती है।एकाध अपवाद को छोड़कर पुरुष भी नारी के साथ घरेलू कार्यों में ,अपनी जिम्मेदारी निभाने लगे हैं ,ऐसा आमतौर पर समाज में विचरते हुये हम अनुभव करते हैं ,अरे सुन,मेरा पति तो सुबह- सुबह चाय भी बनाकर पिलाता है,कपड़े तो वो ही छुट्टी के दिन धोते है , जानती हो --अगर मेरे पति सब्जी न लायें तो मैं कुछ नहीं बनाती--बस जो दाल- वाल घर में हो ,बनाती हूँ ,और तो और मैं तो बस हुक्म चलाती हूँ ---वाहहह, बड़े मज़े हैं तुम सब केआदि बातें जब औरतें खिलखिलाकर करती हैं तो ---तरस भी आता है और जलन भी ?? तरस इसलिये कि क्या ऐसी नारियों को महान कहा जाये ,जो छोटी-छोटी बातों से ,सहेलियों में ढींगें मारकर अपना नारीत्व सिद्ध करती हैं यां उनमें इतनी काबलियत नहीं कि वह घर परिवार चला सकें।जलन इसलिये कि पुरुषों का एक वर्ग ऐसा है जो घरेलू कार्यों को करना अपने पुरुषत्व के खिलाफ समझते हैं और हम ऐसे पुरुषों के साथ रहती हैं।अब दोनों तरस--जलन पर अवलोकन करें तो यही निष्कर्ष निकलेगा कि दोनों नजरिये उचित नहीं,सामांजस्य चाहिये।

 फिर ऐसा क्या है जिस कारण नारी आज भी घुट-घुट कर जी रही है।जब नर-नारी के संसर्ग से ही सृष्टि का निर्माण हुआ ,और दोनों एक दूसरे बिन अधूरे हैं तो फिर आज की नारी कौन सी आज़ादी के लिये छटपटाती है ?? यह चिंतनीय विषय है ?? परिवार ,रिश्तों से अलग आज़ादी का मायना.???नोक-झोंक रोक-टोक एक सीमा तक सही वर्ना हमेशा की आज़ादी...ऐसी आजा़दी जो फिर से किसी बंधन में बंधने को छटपटाती है......

यह आज़ादी औरतों को परिवार से दूर समाज में आगे बढ़ने का हौंसला अवश्य देंगी ,नारी का स्वतः का परिवार न होगा, पर सारी दुनिया उसका परिवार होगी ।उसके चाहने वाले एक परिवार के पाँच-सात लोग.नहीं.,बल्कि समाज के सैंकड़ों लोग चाहने वाले होंगें...है न खुशी की बात !! यह सब्ज़बाग ,तब ही बनेंगे अगर नारी कामकाजी है,धनवान है, और उसमें इतनी हिम्मत ,दृढ़ता ,विवेकशीलता और इतनी समझ है कि वह भावी जिंदगी में अपने नारी गुणों को अपने कार्यों में ,अपने संकल्पों में आने नहीं देगी।अर्थात् वह फिर किसी की चिकनी-चुपड़ी बातों में आकर मन बहलाने का साधन नहीं बनेगी।क्या वह अपनी आवश्यकताओं एवं जरुरतों पर रोक लगा पायेगी ??अगर इस का जवाब है --हाँ ,तो वह नारी धन्य है ।अन्यथा वह ऊँची उड़ानों को भरने की ललक में रिश्तों को संभालने की बजाये,समझने- समझाने की बजाय,दाँँव पेेंच लगाने एवं रिश्तों को तिरोहित करने की ओर अग्रसर हो जायेगी। यौवन की ढलती उम्र पर बस हाथ आयेगा फिर अकेलापन,अपनों की चाहत!!

यहाँ यह अवश्य कहना चाहूँगी कि विवाह करना यां न करना सबका निजी फैसला है।आज ऐसी बहुत सी नारियाँ समाज में विधमान है जिनपर आज नारियों को गर्व है ।पर मैं किरण बेदी,लक्ष्मीकान्त चावला, जी के व्यक्तित्व से प्रभावित हूँ जो अकेले जीवनयापन करते हुये पुरुषों को बराबर टक्कर देती हैं ।और खुद के चैन आराम को नजरअंदाज करके समाज हित में लगी हैं।हो सकता है आप को कोई और नारी नाम पसंद हों,पर सबका नजरिया अलग-अलग है।आज आये दिन परिवार टूट रहे हैं।आप खुद ही सोचिये कि विवाहिता का छोटी-छोटी बातों को लेकर बवंडर खड़ा करना,उचित है,यां घर छोड़ देना सही है ???किसी परिवार में पुरुष प्रधानता है तो कहीं नारी??मैं खुद नारी हूँ।पर यह कटु सत्य है और मेरा निजी अनुभव है जहाँ परिवार में पुरुष प्रधान है वहाँ परिवार बिखरते नहीं हैं,जहाँ स्त्री सत्ता प्रधान होती है वहाँ सदैव कलह क्लेश,लड़ाई-झगड़ा होता है। यह बात 100% तो नहीं पर 90% अक्षरशः सत्य है।यहाँ ऐसा लिखकर मैं पुरुष और नारी को ऊँचा-नीचा सिद्ध नहीं कर रही ।कुछ उदाहरणें हैं जहाँ पति विहीन नारी ने अकेले परिवार का भरण पोषण किया।उन समस्त नारियों को मेरा सलाम है ।आज समाज की समस्या रिश्ते टूटते क्यों हैं ?? नारी नारी की दुश्मन क्यों हैं??

स्त्री कोमल एवं भावुक मानी जाती रही है..यह ठीक है आज वह अपने रूप में चण्डी बनी दिखाई देने लगी है...कुछेक स्थलों पर जहाँ उसके साथ सच में अन्याय हुआ है ,वहाँ तक ठीक है ,वहाँ उसका घर छोड़ना,अपनी बात कहना सही है ..तब अगर रिश्ते भी छूट जायें तो वह गुरेज़ नहीं करती।परंतु आज छोटी छोटी घरेलू बातें भी नारी इस हक से स्वीकार नहीं करती कि उसे कहा तो कहा क्यों...पुरुष दबे यां नारी ...बात एक ही है ..मगर स्वाभिमान की बात को घरेलू कार्यों में ले आना...रिश्तों में दरार पैदा कर रहे हैं..टी वी ,मीडिया ,सीरियल उच्च महानगरीय परिवारों की नारी को दिखाते हैं जो चार-चार बार शादी कर लेती है ,परिवार के बिन रह लेती है ...परंतु मध्यवर्ग में कामकाजी हो यां घरेलू नारी ,वह जब हवाई किले बनाती है तब वह चोट खाती है ..तब न परिवार रहता है,न इज्जत।यही कहना चाहूँगी...अन्याय के विरूद्ध पूरी हिम्मत से सामना करें....पर इसकी आड़ में यां सास ने,पति ने यह कहा ,वह कहा,मुझे सारे घर के काम करने पड़ते हैं..आदि कहकर तलाक लेना..महज बेवकूफी है!!अंत में यही कहूँगी...अपनों के स्नेह के बिना,बुजुर्गों के बिना ,परिवार से अलग नारी आज़ाद तो है पर बंधन में बंधने की घुटन जो उसे खलती है ,वह एक वक्त पर आकर अच्छी लगने लगती है।तब नारी सोचती है ..काश!मैंने उस वक्त को संभाल लिया होता !!


डॉ.पूर्णिमा राय, पंजाब

आलोचना पुरस्कार विजेता भाषा विभाग पटियाला


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