गुरुमुखी देे वारिस हिंदी काव्य मंच--साझा संग्रह-2

  

"गुरुमुखी देे वारिस हिंदी काव्य मंच"द्वारा प्रस्तुत

                    साझा संग्रह -2

    (बेहतरीन एवं चुनिंदा रचनाओं का संकलन) 




1*आरती रतरा ( हिमाचल प्रदेश)

2.डॉ दीपक, (फगवाड़ा)

3* धर्मेंद्र अरोड़ा "मुसाफ़िर"(पानीपत)

4*डॉ.नीलू शर्मा (फगवाड़ा)

5* डॉ.सोनिया शर्मा (अमृतसर)

6*निर्मल कौर,(अमृतसर)

7* कवि प्रेम अमृतसरी -9872728814

8*शायर भट्टी

9*डॉ.पूर्णिमा राय, अमृतसर

10*फराह नसीम



1* आरती रतरा(हिमाचल प्रदेश)
           "माँ "        

 अपनी नींद उड़ाकर सारी रात जागती हैं माँ,
लोरी सुनाकर मीठी नींद से सुलाती हैं माँ,
अपने आँसू छुपाकर हँसाती हैं माँ,
हर मुश्किल रास्ते में आगे गुजरना सिखाती हैं माँ, खुद गीले बिस्तर मैं सोकर सूखे में सुलाती हैं माँ |


           "जो आज हैं वो कल नहीं "   
जो आज हैं वो कल नहीं
वो साथ छोड़ जाते हैं,
आज को भुलाकर लोग
कल के भविष्य को सवारने में लग जाते हैं,
सांस आज हैं कल नहीं
आज पर भरोसा करके अभी जो करना हैं
कर जाते हैं,
जो आज हैं वो कल नहीं वो साथ छोड़ जाते हैं |
                       
2.डॉ दीपक, (फगवाड़ा) 

क्या कहूँ मैं माँ बिन तेरे...

क्या कहूं मैं माँ बिन तेरे
काम मैं क्या-क्या​ कर जाता हूँ
झूठा-झूठा जी लेता हूं
सच्चा सच्चा मर जाता हूं
क्या कहूं मैं...
याद मुझे है सारी बातें
जो जो लाड लडाए हैं
सच कहते हैं दुनिया वाले
बीते दिन कब आए हैं?
याद तेरी जब आए मुझको
आँख से मोती बस जाते हैं
झूठी-झूठी सुन जाते हैं
सच्ची-सच्ची कह जाते हैं
क्या कहूं मैं...
तेरा कर्ज़ उतारूँ कैसे?यही सोचता रहता हूँ
एक जन्म मिल जाए और कहीं
प्रार्थनाओं​ में कहता हूँ
लगे प्रतिपल पास तू मेरे
बिन तेरे अकेला लगता हूँ
झूठा-झूठा रात को सोऊँ
सच्चा-सच्चा जगता हूँ
क्या कहूँ मैं...
मात-पिता सम नहीं दूसरा
लिखा है वेद, पुराणों में
तुम ही सबसे उच्च स्थान पर
मेरे कविताओं गानों में
अगर कभी इस दुनिया से मैं
तुझसे पहले चला जाऊँ
उदास न होनाबस यह कहना
तेरी गोद में फिर आऊँ
तू है समझे मन की मेरे
इसीलिए बतला जाता हूँ
झूठा-झूठा दूर हूँ तुझसे
सच्चा-सच्चा पास आ जाता हूं
क्या कहूँ मैं मां बिन तेरे...
    डॉ.दीपक
*अध्यक्ष, स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग,*
*एस.जी.जी.एस. खालसा कॉलेज,*
*माहिलपुर, जिला - होशियारपुर (पंजाब)

3* धर्मेंद्र अरोड़ा "मुसाफ़िर"(पानीपत)
गज़ल

बोल मीठे सदा बोलता रह गया!
अपने किरदार को तोलता रह गया!!
नाज़ अपनी अगन पे उसे था बड़ा!
आंधियों में दिया डोलता रह गया!!
रात दिन ज़हर के घूंट भरते हुए!
गीत ग़ज़लों का रस घोलता रह गया!!
चल दिए जब सभी गांव को छोड़कर!
एक बूढ़ा शजर चीखता रह गया!!
कुछ मुसाफ़िर जहां में मिला ही नहीं!
ज़िंदगी भर मगर दौड़ता रह गया!!

4*डॉ.नीलू शर्मा (फगवाड़ा)*
     जिंदगी की राह

जिंदगी की राह पर चलते-चलते,
चाहे-अनचाहे कई मोड़ आते हैं!
पर मानो या न मानो,
दोनों में से एक तो जरूर रुकता है ,
हम या वक्त!
हम रुके तो सड़ांध मारी जिंदगी बिताएंगे और अगर हमारा वक्त रुका
तो हम ही सड़ांध मार जाएंगे।
इसलिए रुकना नहीं है-
नाम जिंदगी का, ऐ दोस्त!
तू आगे बढ़ तो सही,
कोई न कोई जरूर हाथ थामेगा तेरा।
नहीं तो, तुम तो थामोगे उसका,
जो तुम्हारे इंतजार में बैठा है ......!
ऐ दोस्त! मानो या न मानो,
जिंदगी की इस डगर पर,
हर किसी को चलना ही पड़ता है।
पर गर कोई ऐसा हमसफर,
हमराज़, हमनवां दिले-गुलजार मिल जाए !
जो इस डगर को
अपने प्रेम की आबो-हवा से महका,
कुछ खुशनुमा कर जाए !
जिंदगी के कंटीले बिछौने को
फूलों से सजा जाए!
तो चलना कुछ आसां हो जाए !
इसलिए चलते रहिए,जनाब !क्योंकि
चलती का नाम ही जिंदगी है!
डॉ. नील शर्मा,सहायक प्रोफ़ेसर
गुरु नानक भाई लालो रामगढ़िया कॉलेज फॉर वूमेन, फगवाड़ा, पंजाब ।

5* डॉ.सोनिया शर्मा (अमृतसर)
         जिंदगी

              
तू जिंदगी को जी
उसे समझने की कोशिश ना कर
सुंदर सपनों के ताने बाने बुन
उनमें उलझने की कोशिश ना कर
चलते वक्त के साथ तू भी चल
उसमें सिमटने की कोशिश ना कर
अपने हाथों को फैला,खुल कर सांस ले
अंदर ही अंदर घुटने की कोशिश ना कर
मन में चल रहे युद्ध को विराम दे
खामख्वाह खुद से लड़ने की कोशिश ना कर
कुछ बातें भगवान पर छोड़ दे
सब कुछ खुद सुलझाने की कोशिश ना कर
जो मिल गया,उसी में खुश रह
जो सुकून छीन ले,उसे पाने की कोशिश ना कर
रास्ते की सुंदरता का लुत्फ उठा
मंजिल पर जल्दी पहुंचने की कोशिश ना कर
मंजिल मिलेगी,नई सुबह होगी
अंधेरों में छिपने की कोशिश ना कर
डॉ. सोनिया शर्मा ,अमृतसर 


6*निर्मल कौर,(अमृतसर)
          गुलाम आजा़दी


मै आजा़द हूँ, हां मै आजा़द हूँ।
सभी कहते हैं, कि मै आजा़द हूँ।
अब तो मुझे भी लगने लगा है
कि मै आजा़द हूँ।
लेकिन कितनी अज़ीब सी, आजा़दी है ।
आजा़दी होकर भी, गुलाम सी है यह।
इसी गलतफहमीं में कि मै आजा़द हूँ।
उड़ने लगी थी मैं, छूने लगी थी आसमां।
चिढा़ने लगी थी उन तारों को और
सताने लगी थी उस चाँंद को भी।
चुराने लगी थी खुशबू उन फूलों से
उड़ने लगी थी मैं, उन पक्षियों के साथ।
और एक दिन यूं ही, उड़ते -उड़ते,
गिर पडी़ मैं, एक बाज़ के प्रहार से।
ज़ख्म इतना गहरा नहीं था,
परन्तु दिल पर लगा था।
इसलिए टूट सी गयी मैं, एक ही झटके में।
और ऐसी टूटी कि नहीं हुई हिम्मत,
फिर से उड़ने की,
उड़कर आसमां छूने की।
उसी पल यह अहसास हुआ,
कि गलतफहमीं ही थी यह,
कि मैं आजा़द हूँ।
असल में आज भी गुलाम हूँ मैं,
गुलाम आजा़दी की।
हँस रहे हैं वो तारे आज,
चाँंद भी मुस्करा रहा है और
फूल भी बिखेर रहे हैं खुशबू,
और कह रहे हैं मुझे, तुम औरत हो, एक औरत।
तुम आजा़द हो,
परन्तु देखो यह आजा़दी बँधी हुई है,
मर्यादा और दायरों के धागों से।
कितनी तरस मय है मेरी हालात,
आजा़द हूँ लेकिन आजा़द नहीं,
गुलाम हूँ मगर गुलाम भी नहीं।
कितनी अज़ीब आजा़दी है ये,
आजा़दी होकर भी गुलाम सी है यह।

 
                        
7* कवि प्रेम अमृतसरी -9872728814
                कविता
पुतला मिट्टी का, ना इन्सान होता
ना इस में अगर ख़ुदा का घर होता
दर बदर इन्सान, क्यों मुझे ढूंढ़ता है
मैं तो तेरे ही दिल में हर वक़्त रहता
मैंने तो भेजा था, लोगों का भला करने
तू तो मुझे ही, भूल गया लगता
रंग बिरंगे चोले पहन, करें ठगियाँ तू
ख़ुद को दुनिया, सामने भगवान कहता
अक्ल ढ़क ली तेरी, तू धर्म के पर्दों से
ख़ुद को हिंदू, तो कभी मुसलमान कहता
मिट्टी धर्म तेरा, मिट्टी से जन्म हुआ
जिस्म मिट्टी में आखिर मिल जाता
हम मिट्टी से इन्सान 'प्रेम' बन जाते
जब ख़ुदा इस मिट्टी में प्रवेश करता
कवि प्रेम अमृतसरी -9872728814

8* शायर भट्टी
          हिन्दोस्तान में.

कैसे लोग आ कर बस गए हैं हिन्दोस्तान में,
अब कोई कृपान टिकती नहीं म्यान में।
भट्टी ग़रीबी मेरे देश की आसमां छूने लगीं,
अब तो तिरंगे भी बिकने लगे हैं दुकान में।
कैसा बेईमानी का कीड़ा सब को काट गया,
आज़ाद कोई भी दिखता नहीं पूरे ज़हान में।
शैतान लूट रहा ज़हान,खुद को खुदा बता कर,
उतनी शक्तियां कहां से आ गई है इंसान में ?
नादान बच्चे हैवानों के जाल में कैसे फंस रहे हैं,
सोचो ऐसा वो क्या कह देते हैं बच्चों के कान में।
जिसका ज़हन,बदन ज़हर से है भरा हुआ,
लोगों वो रखता है मीठा पान अपनी जुबान में।
देश भक्ति सीख लो मेरे देश के वीर जवानों से,
वो द़गा नहीं कमाते,आंँधी चाहे फंँसे हो तूफ़ान में।
शायर भट्टी


9*डॉ.पूर्णिमा राय, अमृतसर
             गज़ल

शोर यूँ ही न परिन्दों ने मचाया होगा।
जाल जंगल में शिकारी ने बिछाया होगा।।
काट कर फेंक दिये पेड़ जमाने भर ने ;
शांत धरती के कलेजे को जलाया होगा।।
हाथ पे छाले पड़े तोड़ती फिर भी पत्थर;
गोद के लाल ने ममता को जगाया होगा।।
धूल से मुखड़े सजे साँझ सुहानी लगती;
वीर ने जीत का फिर जश्न मनाया होगा।।
"पूर्णिमा" रात में चाँद भी तन्हा सा है;
ओस की बूँद में अश्कों को सजाया होगा।।
डॉ.पूर्णिमा राय,7087775713
शिक्षिका एवं लेखिका,अमृतसर,पंजाब

10*फराह नसीम

नीली दीवार वाला कमरा...


शीशम के दरवाज़े के उस पार

है एक नीली दीवारों वाला कमरा,

दादी को क्यों पसंद था

आधा नीला आधा 

सफेद दीवारों

वाला कमरा,

कमरे में किनारे करीने से लगी

सफेद चूने की ढ़ीग,

लगता जैसे जोड़ती हर रिश्ते

को बना के एक 

गीत,

फिर वो छोटी ताक नुमा खिड़की,

जो समेट लेती क्रीम, पॉउडर,

लिपस्टिक,लगता जैसे

मोहब्बत की हो 

बस्ती,

इतने लोगों के होते हुए कभी भी

लगता ना ऐसा, जैसे कोई

ढ़ो रहा है रिश्तों का

बोझ सा,

उसके ऊपर लकड़ी के फर्दे का

टुकड़ा रखता हर खत और

अंतरदेशी, किसी के 

ख़्वाब को जैसे

अपने अंदर

समेटता,

दीवार पर करीने से लगे हुए

अयातुलकुर्सी के ताक,

कुछ मजारों और दरगाह

के खूबसूरत 

खुशनुमा

बाग,

जैसे कड़ी दोपहरी में सुकून

का गहवारा था वो कमरा,

जिसमें झूलता था

छोटे भाई का

बल्ली में बंधा

झूला,

उसमें अक्सर मैं भी झूला

करती, ज़िद कर के 

दादा से उसमें

बैठा 

करती,

मेरी पहुँच से दूर था लेकिन

पुर सुकून सोता था

उसमें छोटा 

भैया,

बिना ढ़के साफ चमकते 

सोफे, साथ लगी बा तरतीब

कपड़ों से जमी 

अलमारी,

ऐसा लगता जैसे किसी बाप

के ज़ेहन की करती

ताबेदारी,

दादी की साड़ियाँ रंग बिरंगी कोसा

सिल्क, कॉटन, और खादी,

चाचा,दादा की कमीज़

और सफेद पैजामे में 

लगती एक बुज़ुर्ग 

की जैसे हो भारी

जिम्मेदारी,

नक्काशी नुमा फ्रेम पे रखी सन्माइके

से सजी प्लाई, देती सेंटर टेबल को

जैसे अंधेरे में रोशनी की

शहंशाई,

शीशे से झांकता मेरा अक्स आज

भी मुझे पुकारता है, वो ड्रेसिंग

टेबल जिसपे पूरा घर आज

भी इत्र सा 

महकता है,

खपरों से लदे छत पे एक काँच

का छोटा चोखट्टा टुकड़ा

लगता जैसे हो ख़्वाब

किसी वालिद की

आँख का थोड़ा

छूटा थोड़ा

अधूरा सा,

साथ लगे बावर्ची खाने में

दीवार पे टंगी मीठे नीम

की ड़गाल जो पत्ती

के साथ कब बन

जाती दांत खोदने

की खलाल,

नीचे रखें ड़ालडा के बड़े बड़े

पीले पुते डब्बे,साथ लगी 

अलमारी में नीचे

एक मटका और

स्टील की मीठे

पानी से लबा

लब भरी 

टंकी,

फर्श पे बैठ के दरी पर वो सब

का साथ में खाना खाना,

लगता जैसे एक नौनिहाल

के लिए बुनती उसकी

माँ ताना 

बाना,

इतना सब साथ में एक पिंजरे

में बंद हरा मिठ्ठू,पढ़ता

कर एक शक्स का

चहरा, कहता वहीं

जो सिखाते

उसको सब समझ के रट्टू तोता,

उसके दिमाग में भी तो 

कितने ख़्याल महकते

होंगे, जो देखता है

घर के हालात

उसके आंख में भी घर वालों

की दुआ के लिए आंसू

सिसकते होंगे।।


फराह नसीम

नीलेश्वर



संकलित एवं संपादित 

डॉ पूर्णिमा राय, शिक्षिका एवं लेखिका

महासचिव 

(गुरुमुखी दे वारिस हिंदी काव्य मंच, पंजाब) 

सौजन्य:चेयरमैन गुरवेल कोहालवी

(गुरुमुखी दे वारिस पंजाबी साहित्य वेल्फेयर सोसायटी रजि, पंजाब) 


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