वेतन (लघुकथा)

 वेतन (लघुकथा)



सरकारी कार्यालय हो या अर्ध सरकारी,या प्राइवेट ,बंधन तो हरेक स्थान पर है ,कहीं कम तो कहीं अधिक।कहीं शारीरिक तो कहीं मानसिक।पर यह बंधन ,बंधन महसूस  नहीं होता क्योंकि इसी बंधन में बंधकर ही जिंदगी के हसीन सपने पूरे होते हैं, अर्थात घर-परिवार , वैयक्तिक व्यय एवं थोड़ा बहुत सामाजिक कार्य!अच्छी जिंदगी ,अच्छे व्यवसाय की तलाश आज हर किसी को है।हो भी क्यों न?मानव जीवन एक बार ही तो मिलता है ,बार-बार मिलना दुर्लभ है।जब व्यक्ति नौकरी का चुनाव करके बंधन वाली जिंदगी जब स्वयं स्वीकार कर लेता है तो वह किसी को दोष नहीं दे सकता । महीने की अंतिम तिथि और नये माह के आरंभ की तिथि से उसका चेहरा खिलने वाला हो जाता है ।सही समझे आप ?उसको वेतन मिलने वाला होता है जो उसकी थकान को दूर कर देता है।ये वेतन ही उसे मानसिक तनाव से दूर करता है।तब उनको लगता है कि वे आज़ाद हैं ।और अगर कभी वेतन समय पर न मिले ,अर्थात् कभी किसी कारणवश कोई हड़ताल हो जाए,या बजट समस्या हो जाए ,ऐसी स्थिति में मानसिक तनाव और अधिक बढ़ जाता है।नौकरीपेशा लोग आज़ादी का आनंद तभी मान सकते हैं जब उनको वेतन प्रतिमाह सप्ताह के आरंभ में ही मिल जाए अन्यथा एक माह में वेतन देरी पर वे फिर से वहीं खड़े हो जाते हैं जहां से उन्होंने गुलामी से बाहर आना सीखा था।

डॉ.पूर्णिमा राय, पंजाब 

7/12/23

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