मूल्य शिक्षा बनाम नैतिक शिक्षा (आलेख)
विधा-आलेख
मूल्य शिक्षा बनाम नैतिक शिक्षा : डॉ पूर्णिमा राय
आधुनिक शिक्षा का लक्ष्य व्यक्ति का केवल शारीरिक, बौद्धिक ,भावात्मक सामाजिक सांस्कृतिक एवं सौंदर्यात्मक विकास ही नहीं बल्कि उसकी नैतिक एवं धार्मिक विकास करना भी है।Acc to Ross(रॉस) ---"Education must have the foundation of religion in order to save us from the darkness of the world."अर्थात धर्म मानव की प्रगति में सहायक है। संसार के अंधकार से बचाता है ।धर्म के बिना व्यक्ति "सत्यम शिवम सुंदरम" में विश्वास नहीं कर सकता। विश्व शांति और आध्यात्मिक संतुष्टि के लिए धार्मिक शिक्षा अत्यंत आवश्यक है ।"जीओ और जीने दो" की नीति को इसी से प्रोत्साहन मिलता है।
धर्म का शाब्दिक अर्थ है-- व्यक्ति को व्यक्ति से बांधना। Religion means Religare.
Acc to Radha krishnan's--"सच्चा धर्म लोगों के दिलों में होता है ,मनुष्य द्वारा निर्मित संप्रदायों में नहीं होता, यह मनुष्य की आध्यात्मिक प्रकृति में विश्वास करता है।"
नैतिकता क्या है ?नैतिकता मानव जीवन का आधार है ।व्यक्ति एवं समाज की प्रगति नैतिकता पर आधारित है ।यह घृणा ,संघर्ष तथा विनाश को रोकते हैं और संतुलन, शांति तथा आनंद की वृद्धि करती है। एनी बेसेंट, महात्मा गांधी, टैगोर और अरविंदु ने स्कूलों और कॉलेज में नैतिक व धार्मिक शिक्षा देने की ओर संकेत किया है।
धर्म और नैतिकता एक दूसरे पर आधारित है ।दोनों का संबंध भौतिक आवश्यकता के साथ-साथ आध्यात्मिक आवश्यकता के साथ भी है। यह दोनों मनुष्य को दासता से मुक्त करना चाहते हैं। धर्म अपने व्यापक अर्थ में निसंदेह नैतिकता का पर्यायवाची है।Acc to Gandhi--"मेरे लिए नैतिकता नीति शास्त्र और धर्म एक ही वस्तु के विभिन्न नाम है। धर्म के बिना नैतिक जीवन खड़कते हुए पीतल के समान है जो केवल शोर करने तथा सिर फोड़ने के लिए उपयोगी है। दूसरे शब्दों में नैतिकता में ही धर्म निहित है और धर्म मानव के संपूर्ण चरित्र के सिद्धांत की सूचना प्रदान करता है।
Religion is said to be the fountain head of all moral value in life."
नैतिक मूल्यों में दिन-प्रतिदिन गिरावट आ रही है। इस गिरावट के बहुत से कारण है-- आज संयुक्त परिवार प्रथा ना मात्र है। एकल परिवारों की संख्या अधिक है। पदार्थवाद की अंधी दौड़ में धन की लालसा ने परिवारों को बिखेर कर रख दिया है। आजकल बड़ा भाई अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा के कारण छोटे भाई से मेल मिला भी कम रखता है उसके घर से खाना भी नहीं खाता है। एक दिल्ली में है तो दूसरा कोलकाता में ।मिलकर बैठना ,बड़ों का सत्कार करना, छोटों से प्रेम, एक दूसरे का कहना मानना, कर्तव्य और फर्ज को पहचानना आदि मूल्य कहीं नहीं दिखाई दे रहे हैं।
आज गांव की अपेक्षा शहरी आबादी लगातार बढ़ती जा रही है ।लोग गांव से निकलकर शहरों की ओर आना अधिक पसंद करने लगे हैं। औद्योगिकरण होने लगा है। गांव के संस्कार, मूल्य आज शहरों में बहुत कम ही देखने को मिल रहे हैं ।उत्तर आधुनिकता अपना जोर पकड़ रही है। औद्योगिकरण होने से वाणिज्य व व्यापार में वृद्धि हुई। व्यापारी वर्ग अलग-अलग जगह जाने लगा। वहाँ वह उसी जगह के सामाजिक रस्मों-रिवाज को जैसे-जैसे देखता था वैसे-वैसे उन्हें अपनाने लगा। बेईमानी, रिश्वतखोरी ,भ्रष्टाचार इसी की ही देन है।
जैसे-जैसे वैज्ञानिक उन्नति हुई। वैसे-वैसे पुराने अंधविश्वास खत्म होने लगे। आने-जाने के साधन भी बढ़ने लगे। पहले बैलगाड़ी या घोड़े पर व्यक्ति सफर करता था तो अपने निकट संबंधियों से संपर्क रखता था। पर अब समय बदलाव के साथ-साथ यातायात के साधनों में भी इतनी उन्नति कर ली कि अगर वह अपने किसी संबंधी के पास फॉर्मेलिटी के लिए भी जाता है तो केवल थोड़े समय के लिए ही ।आज नाश्ता दिल्ली में करता है तो रात का खाना न्यूयॉर्क में करता है ।
कला व संस्कृति के ह्रास के साथ-साथ मूल्य भी खत्म होने लगे ।टीवी, मीडिया, समाचार -पत्र में आए दिन कला का हृास होता दिखाई दे रहा है। भारतीय संस्कृति कहीं दिखाई नहीं दे रही, उसकी जगह नंगेज़वाद और अश्लीलता ने ले ली।
मूल्य में गिरावट का कारण राजनीति भी रही है ।राजनीति का सदैव समाज से प्रत्यक्ष रूप से संबंध रहा है। राजनेता सदैव युवा वर्ग को अपनी घटिया नीतियों का शिकार बनाते रहे हैं। इसी राजनीति के कारण विश्व युद्ध हुए जिनमें प्रत्येक इंसान ने मूल्यों को भंग किया।मात्र अपनी जान की ही परवाह की। युद्ध में सबका यही नारा रहा-"Everything is fair in love and war."ऐसी राजनीति से भाई-भाई नहीं रह पाता। विद्यार्थी व गुरु का संबंध सही नहीं रह पाता ।बेटे पिता को भी मारने पर आतुर हो जाते हैं।
मूल्यों की गिरावट में बहुत बड़ा कारण मनोवैज्ञानिक भी है। यह व्यक्ति की मानसिक स्थिति ही है कि जब किसी से प्रेम करने लगता है तो वह प्रेम विवाह तक पहुंच जाता है। इसी कारण वह अपने जातिगत मूल्यों को भी तोड़ने लगता है। निष्कर्ष रूप में देखा जाए तो आज के समय में नैतिक मूल्यों में गिरावट दिन- प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है।
उपयुक्त कारणों पर विचार विमर्श करने के पश्चात एक सबसे महत्वपूर्ण कारण है-- अध्यापक,उसका व्यक्तित्व, उसका वातावरण एवं वह समाज जहाँ वह विचरण करता है। एक सामाजिक प्राणी होने के नाते शिक्षक इन सभी से अर्थात धन, सामाजिक प्रतिष्ठा, व्यापार, कला, संस्कृति , राजनीति से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जुड़ा हुआ है। इन सब का उस पर भी प्रभाव पड़ना अनिवार्य है ।अब आगे अध्यापक का संबंध छात्र से है, विद्यार्थी से है। इसलिए विद्यार्थी का अध्यापक व उसके व्यक्तित्व से प्रभावित होना भी स्वाभाविक है। यह ठीक है कि कमल के फूल की तरह संसार रूपी कीचड़ में रहते हुए भी इस कीचड़ /गंदगी में निर्लेप रहना सबके वश में नहीं है पर अध्यापक का जीवन ऐसा बन सकता है ।अगर उसे इस बात का सदैव एहसास रहे कि वह देश व राष्ट्र का निर्माता है, भविष्य बनाने वाला है, देश के भावी नागरिक उसी के संरक्षण में पल रहे हैं ,ऐसी भावना से ओत-प्रोत अध्यापक ही मूल्य में आई गिरावट को दूर करने के लिए उपाय सोच पाएगा। ढंग- तरीके अपना सकेगा, जो यही सोचता रहेगा कि देश का प्रबंधकीय एवं राजनीतिक ढांचा उचित नहीं है सही नहीं है, सर्वत्र भ्रष्टाचार व्याप्त है, रिश्वतखोरी है बेईमानी है, कोई सुधार करना नहीं चाहता है तो कभी सुधारना हो पाएगा। कहते हैं अगर जाति या कौम या समाज का सुधार करना है तो प्रत्येक व्यक्ति को अलग-अलग कार्य करना होगा अपना आप सुधारना होगा।
छात्रों में नैतिक मूल्य पैदा करने के लिए अध्यापक की भूमिका महत्वपूर्ण है। आजकल स्कूलों में प्रार्थना सभा के दौरान बच्चों को समूह गान के लिए कुछ समय दिया जाए ।यही बच्चों को किसी न किसी नैतिक मूल्य से संबंधित विषय की जानकारी दी जाये। वैसे तो आजकल अध्यापक दिवस बाल दिवस, हिंदी दिवस, गांधी जयंती के बारे में छात्रों को शिक्षित किया जा रहा है ।महत्वपूर्ण व्यक्तियों की जीवनियों पर भी अध्यापकों द्वारा प्रकाश डाला जाना चाहिए धार्मिक गीतों का उच्चारण भी करवाने से पहले उनके अर्थ छात्रों को अवश्य स्पष्ट कर देने चाहिए ।"देह शिवा वरमोहि हैं--" शब्द गायन द्वारा बच्चों के मन में वीरता का भाव पैदा किया जा सकता है और उन्हें सिक्खों के दशम गुरु गोविंद सिंह जी की 9 वर्ष की वह घटना बताई जाए जब उन्होंने अपने पिता श्री गुरु तेग बहादुर जी को कश्मीरी पंडितों की सहायतार्थ बलिदान के लिए प्रेरित किया था।
यह ठीक है कि आज सत्य धर्म की बातें केवल आदर्श बनकर रह गई हैं, व्यावहारिक रूप में उनका प्रयोग सही नहीं हो रहा है पर यहां भी अध्यापक का कर्तव्य है कि वह बच्चों को चाहे मानस की एक जाट कविता जो कि गुरु गोविंद सिंह जी द्वारा रचित है पढ़ाई संत कबीर की दोहावली पढ़ते समय धार्मिक दृष्टि से बच्चों की विचारधारा को संकेत न होने दे वरुण उनकी विचारधारा को विशाल बनाएं इसके अतिरिक्त वह धर्म का निष्पक्ष रूप से अर्थ लें यह ना हो कि कहीं अध्यापक हिंदू है तो वह हिंदू तब की ही बात बच्चों पर ठोस से या सिक्ख ईसाई मुसलमान है तो उन्हीं का प्रचारक न बन जाए। वह अपने धर्म के स्वरूप की अमिट छाप बच्चों के मन पर ना पढ़ने दे।
आज शिक्षण में बहुत सारी गतिविधियां छात्रों को करवाई जाती हैं जिनसे उनको व्यस्त रखा जाता है ।इन सब के साथ-साथ बच्चों को समय-समय पर नैतिक शिक्षा भी दी जा रही है पर यहाँ भी अध्यापक का फर्ज बनता है कि वह अपने 45 मिनट के पीरियड में 10 मिनट भी बच्चों को नैतिक शिक्षा के साथ जोड़कर उनका मार्गदर्शन कर सकता है। हिंदी शिक्षक शिक्षण करते हुये" ऐसी वाणी बोलिए... दोहा पढ़ाते समय वाणी के महत्व के बारे में बच्चों को बता सकता है। "बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर.." इस दोहे के माध्यम से घमंडी का सिर नीचा इस पर विचार चर्चा की जा सकती है। "फर्क" लघु कथा के द्वारा बच्चों के बीच में पशु और मानव स्वभाव के अंतर के बारे में जानकारी दी जा सकती है। "हिम्मत और जिंदगी" निबंध पढ़ाते हुए साहसी व्यक्ति अपना रास्ता कैसे चुनता है ,कैसे वह भीड़ में भी अकेला अपनी पहचान बना लेता है ,वह क्रांतिकारी होता है ,वह तमाशा देखने वाला नहीं, तमाशा करने वाला होता है ऐसे विचारों के साथ बच्चों को रूबरू करवा सकता है। इसके साथ "युद्ध की विभीषिका ", "सिपाही की मां" "दीपदान" आदि एकांकियों से जीवन की दर्दनाक सच्चाई को उजागर करके उनके दुष्परिणाम बताकर गिरते हुए नैतिक मूल्यों को बचाया जा सकता है।" राखी का मूल्य" एकांकी के माध्यम से धर्म भाई का महत्व बताकर आज की वर्तमान बहनों के बारे में बताया जा सकता है।" मां मैं भी पढ़ने जाऊंगी" कविता द्वारा शिक्षा लड़की का गहना है दहेज है ,भ्रूण हत्या, बाल विवाह अनमेल विवाह की समस्या को उजागर कर सकता है। उनके कारण गिरते हुए मूल्य को बचा सकता है।
खेलकूद के माध्यम से भी शिक्षक शिक्षण करते हुए बच्चों में सहयोग, मिलवर्तन की भावना पैदा कर सकता है। प्रतियोगिता में भाग लेना ,हार जीत से ऊपर उठना ,अनुशासन में रहना, परिश्रम करना मेहनती बनना, यह सब खेल-कूद के माध्यम से बच्चे व्यवहारिक जीवन में अपना सकते हैं। गणित विषय द्वारा तार्किक सोच शक्ति को विकसित किया जा सकता है ।बच्चों के चिंतन मनन के दायरे को विशाल किया जा सकता है। बच्चों की सोच शक्ति ऐसे विकसित हो जाए कि वह यह सोचने पर विवश हो जाए कि यह संख्या कैसे आई और कहाँ से आई है अर्थात उनको सूक्ष्म से सूक्ष्म ज्ञान गणित के माध्यम से हो सकता है।
विज्ञान एवं कला के माध्यम से बच्चे विश्लेषण करना सीखते हैं उनकी तार्किक सोच विकसित होती है ।चित्रकला के माध्यम से बच्चों में सौंदर्यात्मक गुण पैदा किया जा सकते हैं। मोर का चित्र बनाकर बच्चे सुंदरता का एहसास करना सीख सकते हैं। पंछी की आवाज निकालने से मनुष्य व पंछी की आवाज में भिन्नता का अंतर बच्चे सीख सकते हैं ।नृत्य /गीत के माध्यम से भी नैतिक मूल्यों की शिक्षा दी जा सकती है ।भगत सिंह की घोड़ी एवं उधम सिंह की वार आदि के माध्यम से बच्चों के अंदर सांस्कृतिक विरासत को जीवित रखने का गुण पैदा किया जा सकता है ।अंधविश्वास ,भ्रम आदि से मुक्ति भी विज्ञान विषय के माध्यम से बच्चों को होती है। इतना ही नहीं सामाजिक शिक्षा विषय द्वारा भी वातावरण की शिक्षा बच्चों को दी जाती है या दी जा सकती है ।प्रदूषण, दहेज, बेरोजगारी जनसंख्या वृद्धि आदि विभिन्न समस्याओं पर विचार विमर्श करके उनके समाधान तक पहुंचा जा सकता है ।मानव अधिकार, अपने मत / वोट का सही उपयोग ,चुनाव की जानकारी बच्चों को दी जा रही है। इसके माध्यम से बच्चे अपने वोट का सही उपयोग करना सीख सकते हैं ।महान पुरुषों के जीवन चरित्र लाइब्रेरी से पुस्तकों को पढ़कर बच्चे प्राप्त कर सकते हैं। निष्कर्ष रूप में कहा जाए तो नीतिशास्त्र अर्थात नैतिक मूल्य शिक्षा का एक अभिन्न अंग है। इनके बिना शिक्षा अधूरी है ।
आज अध्यापक के मार्ग में इतनी रुकावटें हैं कि वह मूल्य के विकास में चाह कर भी उतना योगदान नहीं दे सकता, जितना वह देना चाहता है। उसकी स्थिति ऐसी है कि अगर वह नैतिक विकास करना भी चाहे तो उसे पागल कह कर पुकारा जाता है, सत्य का दामन पकड़े तो चोर की संज्ञा दी जाती है। अगर वह लकीर का फकीर ना बने तो ऐसा बनने के लिए उसे विवश होना पड़ता है पर फिर भी कुछ अध्यापक ऐसे हैं जो अपना आत्म मंथन करते हैं अपने जमीर को जिंदा रखते हैं और नैतिक मूल्य को बच्चों तक पहुंचाने में कोई भी कसर नहीं छोड़ते हैं अपना सौ प्रतिशत देकर अपने शिक्षक वर्ग का सिर गर्व से ऊँचा करते हैं ।अंत में यही कहूँगी-----" मिटा दे अपनी हस्ती को अगर कुछ मर्तबा चाहे कि दाना ख़ाक में मिलकर गुल-ए-गुलजार होता है।"
डॉ.पूर्णिमा (डॉ पूर्णिमा राय)
शिक्षिका एवं लेखिका
ब्लॉक रिसोर्स कोऑर्डिनेटर
अकादमिक सहायता समूह
अमृतसर, पंजाब
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